शिव गीता भाग - 2

गीता प्रसार 


श्रीभगवानुवाच ।



अव्यक्तसे कालकी उत्पत्ति हुई तथा उसीसे प्रधान पुरुषकी उत्पत्ति हुई है और उनसे यह सब जगत उत्पन्न हुआ इस कारण यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्ममय है ॥१॥




जो संसारमे सब ओरको अपने कर्ण किये और सबको व्याप्त करके स्थित हो रहा है, सब जगतके पैर जिसके चरण और सबके हस्त, नेत्र, शिर, मुख, जिसके हाथ, नेत्र, शिर, मुख है तथा च श्रुतिः (सहस्त्रशीर्षाः पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ) इति ॥२॥




जो सम्पूर्ण इन्द्रिय और गुणोंके आभाससे युक्त शरीरमे स्थित है और जो सब इन्द्रियोंसे वर्जित है सबका आधार सदानन्दस्वरूप अप्रगट द्वैतरहित ॥३॥




संपूर्ण उपमाके योग्य, सबसे परे नित्य तथा प्रमाणसेभी परे, निर्विकल्प, निराभास, सबमें व्यापक, परं अमृत स्वरूप ॥४॥




सबके पृथक्‌ और सबमे स्थित, निरन्तर वर्तमान निश्चल अविनाशी निर्गुण और परंज्योतिस्वरूप ऐसा उस स्थानको विद्वानोनें वर्णन किया है ॥५॥




वह सम्पूर्ण प्राणियोंका आत्मा बाह्य और आभ्यन्तरसे परे जिसे कहते है वही मै सर्वगत शान्तस्वरूप ज्ञानात्मा परमेश्वर हू ॥६॥




यह स्थावर जंगमात्मक संसार मुझसेही उत्पन्न हुआ है, सब प्राणि मेरे ही निवास स्थान है, ऐसा वेदके जाननेवाले कहते है ॥७॥




एक प्रधान और एक पुरुष यह जो दो वर्णन किये है उन दोनोंका संयोग करनेवाला अनादि काल है यह तीनों अनादि है और अव्यक्तमें निवास करते है इनका वो तदात्मक रूप है वही साक्षात मेरा स्वरूप है ॥८॥९॥




जो महतसे लेकर यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न करती है वह संपूर्ण देहधारियोंकी मोहित करनेवाली प्रकृति कहलाती है ॥१०॥




यह पुरुषही प्रकृतिमें स्थित होकर प्रकृतिके गुणोंको भोगता है, अहंकारसहित होनेसे पच्चीसतत्त्वनिर्मित यह देह कहाता है ॥११॥




प्रकृतिका प्रथम विकारही महान कहाता है यह आत्मा विज्ञानशक्तियुक्त स्थित रहता है पीछे उसीसे विज्ञानशक्तिका जाननेहारा अहंकार उत्पन्न होता है ॥१२॥




उस एकही महान आत्माका नाम अहंकार कहा जाता है वही जीव और अंतरात्मा कहा जाता है, यह तत्त्वके जाननेवालोंने कहा है ॥१३॥




यही जन्म लेकर, सुख और दुःख भोगता है यद्यपि वह विज्ञानात्मा है परन्तु मनके संग होनेसे वह मन उसके उपकारक है ॥१४॥




अज्ञानके कारण इस पुरुषको संसारकि प्राप्ति हुई है और प्रकृतिसे पुरुषका संयोग होनेसे कालान्तरमें पुरुषको अज्ञानकी प्राप्ति हुई है ॥१५॥




यह कालही जीवों को उत्पन्न करता और कालही संहार करता है, सम्पूर्ण ही कालके वशमें है, परन्तु काल किसीके वशमे नही है ॥१६॥




वही सनातन सबके ह्रदयमे स्थित होकर इस सबको जानता है और वशमें रखकर शासन करता है, उसेही भगवान प्राणस्वरूप सर्वज्ञ पुरुषोत्तम कहते है ॥१७॥




मनीषी विद्वानोंने इन्द्रियोंसे परे मनको कहा है, मनसे परे अहंकार, अहंकारसे परे महत् है ॥१८॥




महानसे परे अव्यक्त और अव्यक्तसे परे पुरुष है, पुरुषसे परे भगवान प्राण स्वरूप है, उससे यह सब जगत हुआ है ॥१९॥




प्राणसे परे व्योम (आकाश) और व्योमसे परे अग्नि ईश्वर है, सो मै सबसे व्याप्त शान्तस्वरुप हूं और मुझसे यह सब जगत विस्तृत हुआ है ॥२०॥




मुझसे परे और कुछ नही है प्राणी मुझको जानकर मुक्त हो जाता है संसारमे स्थावर जंगम इनमें किसीको भी नित्यता नही है ॥२१॥




केवल एक मै ही व्योमरूप महेश्वर हू सो मै ही सब जगतको उत्पन्न करके संहार करता हूं ॥२२॥




मायास्वरूप मुझमें कालकी संगति होकर मेरी स्थितिसे ही काल सम्पूर्ण जगतके उत्पन्न करनेमे समर्थ हुआ है कारण (कलनात् सर्वभूतानां कालः स परिकीर्तितः) सम्पूर्ण प्राणियोंकी आयुकी संख्या करनेसे ही इसका नाम काल हुआ है ॥२३॥




यही अनन्तात्मा सब जगतको यथायोग्य रखता है, यही वेदका अनुशासन है, किसीको महादेव कालात्मा कालान्त आदिनामसे उच्चारण करते है, यही दैत्योंको संहार करते है इस प्रकार जानना उचित है ॥२४॥




सूतजी बोले - हे ब्रह्मवादी ऋषियो! तुम सावधान होकर सुनो हम उन देवदेव आदि पुरुषका माहात्म्य कहते है जिनसे यह सम्पूर्ण जगत् प्रवृत हुआ है ॥२५॥




शिवजी बोले- अनेक प्रकारके तप ज्ञान दान और यज्ञसे पुरुष मुझे इस प्रकर नही जान सकते जिस प्रकार श्रेष्ठ भक्ति करनेवाले मुझको जाननेको समर्थ होते है इससे केवल श्रेष्ठ भक्ति करनेवाले मुझे शीघ्र जान सकते है ॥२६॥




मै ही सर्वव्यापी होकर सब प्राणियोके अन्तःकरणमे स्थित हूं, हे मुनीश्वरो! मुझे यह संसार सब लोकोंका साक्षी नही जानता है ॥२७॥




जो यह परमात्मा सबके ह्रदयान्तरमे निवास करता है, उसीके अन्तरमें यह सब जगत है वही धाता विधाता कालाग्निस्वरूप सर्वव्यापक परमात्मा मै हू ॥२८॥




मुझको मुनि और सब देवता भी नही जानते है तथा ब्रह्मा इन्द्र मनु औरभी विख्यात पराक्रमी मेरे रूपको यथार्थ जाननेमें समर्थ नही होते ॥२९॥




मुझही एक परमेश्वरको सदा वेद स्तुति करते रहते है, (सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति) और ब्राह्मणादि अनेक प्रकारके छोटे बडे यज्ञोद्वारा यजन करते रहते है ॥३०॥




पितामह ब्रह्मासहित सम्पूर्ण लोक नमस्कार करते है, और योगी जन सम्पूर्ण भूतोंके अधिपति भगवानका ध्यान करते है ॥३१॥




मै ही सम्पूर्ण हवियोंको भोक्ता और फल देनेवाला हूं, मै ही सबका शरीररूप होकर सबका आत्मा सबमे स्थित हू ॥३२॥




मुझे विद्वान् धर्मात्मा और वेदवादी देख सकते है उनके निकट जो नित्यप्रति मेरी उपासना करते है ॥३३॥




ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, धार्मिक मेरे उपासना करते है उनको मै परमानन्द परमपद स्वरूप अपने स्थानको देता हूं ॥३४॥




और जो शूद्र आदि नीच जाति अपने धर्ममें स्थित है और वह मेरे भक्ति करते है वे कालसे यद्यपि मिले हुए है तथापि मेरी कृपादृष्टिसे मुक्त हो जाते है ॥३५॥




मेरे भक्त पापरहित हो जाते है उनका कभी नाश नही होता प्रथम तो यही मेरीप्रतिज्ञा है कि मेरे भक्तोंका कभी नाश नही होता यदि वह बीचमे ही सिद्धि प्राप्त होनेसे पूर्व मृत्तक हो जाय तो फिर योगीके घरमे जन्म ले सत्संगको प्राप्त हो मुक्त हो जाता है ॥३६॥




जो मुर्ख मेरे भक्तोंकी निन्दा करता है उसने देवदेव साक्षात मेरीही निन्दा की और प्रेमसे उनका पूजन करता है उसने मानो मेराही पूजन किया ॥३७॥




परिपुर्ण शिवस्वरूपमें और क्या शुभ किया जाय, जो कुछ शिवके भक्तके निमित्त किया है, वह सब कुछ मुझ शिवस्वरूपके ही वास्ते किया है ॥३८॥




जो प्रेमसे मेरे आराधनके कारण पत्र पुष्प फल जल नियमित होकर प्रदान करता है वह मेरा भक्त और मेरा प्यारा है ॥३९॥




मै ही जगतकी आदिमे सृष्टि उत्पन्न करनेसे ब्रह्मा परमेष्ठी कहा जाता है, तथा पालन करनेसे उत्तम पुरुष परमात्मा इस नामसे गाया जाता है ॥४०॥




मै ही सम्पूर्ण योगियोंका अविनाशी गुरु हू, मै हि धर्मात्माओंका रक्षक और वेदविरोधियोंका नाश करनेवाला हू ॥४१॥




मै ही योगियोंको संसारबन्धनके सब प्रकारके क्लेशसे छूडानेवाला हू, मैही सब प्रकार संसारसे रहित होकर संसारका कारणभी हू ॥४२॥




मै ही सब संसारको उत्पन्न पालन करनेहारा तथा संहार करता हू कारण कि, कार्य अपने कारणमे लय हो जाता है, इससे सब जगत मुझसे उत्पन्न होकर मुझमेंही लय होजाता है तथा च श्रुतिः (विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता) और यह मेरी महाशक्ति लोकको मोहनेवाली माया है जो अनेक प्रकारसे जगतको उत्पन्न करती है (अजामेका लोहितशुक्लकृष्णा बह्वीः मजाः सृजमानाम सरूपाः) इति श्रुतेः ॥४३॥




और मेरीही यह परा शक्ति विद्या नामसे गाई जाती है मै योगियोंके ह्रदयमे स्थित होकर उस अज्ञानकी उत्पन्न करनेवाली संसारमे भ्रमानेवाली मायाको नाश करता हूँ ॥४४॥




मैही सम्पूर्ण शक्तियोंके प्रेरणा करनेवाला हू, और मै ही निवृत करनेवाला हू, मैही अमृतका निधान हू ( स दाधार पृथ्वी द्यामुतेभामिति श्रुतेः) श्रुतिसे भी यह सिद्ध है कि, यह विश्वको धारण कर रहा है ॥४५॥




मैही सम्पूर्ण जगत हूं और मुझमें ही सब जगत है अर्थात यह सब कुछ मै ही हू दूसरी वस्तु कुछ नही है (सर्व खल्विंद ब्रह्म नेह नानास्ति किंचनेति श्रुतेः) यह सब जगत मुझसे ही उत्पन्न होकर मुझमे ही लय हो जाता है (यथोर्णनाभिः सृजते गृहणते च) जैसे मकडी अपनेमेंसे जाला निकालकर ग्रहण कर लेती है इसी प्रकार मै जगत उत्पन्न कर फिर लय करलेता हू ॥४६॥




मै ही भगवान ईश्वर स्वयंज्योति सनातन हू, मै ही परमात्मा परब्रह्म हू, मुझसे परे कोई दुसरा नही है ॥४७॥




यह एक शक्ति जो सबके अन्तःकरणमें स्थित होकर अनेक प्रकारके जगतको उत्पन्न करती है यही मेरी शक्ति मुझ ब्रह्मस्वरूपमें स्थित होकर जगतकी रचना करती है और मुझही में स्थित है ॥४८॥




दूसरी शक्ति नारायण देव जगन्नाथ जगन्मय विष्णुस्वरूप होकर इस संपूर्ण जगतको स्थापित करती अर्थात पालती है ॥४९॥




तीसरी महती शक्ति है जो सम्पूर्ण जगतका संहार करती है उस शक्तिका नाम तामसी है तथा उसका रौद्ररूप है कालनाम है ॥५०॥




कोई मुझे ज्ञानसे देखते है, कोई ध्यानसे, कोई भक्तियोग और कोई कर्मयोगसे अर्थात कर्मकाण्डके आश्रयसे मेरा यजन करते है ॥५१॥




परन्तु इन सब भक्तोंमे वह मुझे सबसे अधिक प्यारा जो नित्य प्रतिज्ञासे मेरी आराधना करता है ॥५२॥




और भी जो मेरे भक्त मेरी उपासना करते है, वे भी मुझको प्राप्त होजाते है , और फिर उनका जन्म नही होता (यथा इह स्थातुमपेक्षते तस्मै सर्वेश्वर्ये ददाति यत्र कुत्रापि म्रियते देहान्ते देवः परं ब्रह्मं तारकं व्याचष्टे येनामृतीभूत्वा सोऽमृतत्वं च गच्छति) अर्थात् जो उसकी भक्ति करता है और उन्नतिको प्राप्त होनेकी इच्छा करता है, उसे भगवान सम्पूर्ण ऐश्वर्य देते है और वह ही मृतक हो देहान्तमें भगवान उसे तारक मंत्रका उपदेश करते है, जिससे उसका फिर जन्म नही होता ॥५३॥




मैने ही सम्पूर्ण प्रधान और पुरुषात्मक जगत उत्पन्न किया है मुझही मे यह सम्पूर्ण जगत स्थित है और मुझसे ही प्रेरित होता है ॥५४॥




मै इसका प्रेरक नही हू, अर्थात उपाधिसे प्रेरण करनेवाला हू ऐसा विद्वान जानते है परन्तु वास्तवमें मे प्रेरक नही, हे परमयोग साधनेवाले ब्राह्मणो! जिस प्रकारसे मै प्रेरक नही हू और जिस प्रकारसे प्रेरक हू इसको जो जानते है वह मुक्त स्वरूप है अर्थात् तत्वविचारसे जानना उचित है कि, वास्तवमें ब्रह्म कुछ नही करता ॥५५॥




मै इस संसारको जो स्वभावसे वर्तमान है सब ओरसे देखता हूं परन्तु महायोगेश्वर काल भगवान काल यह सब कुछ स्वयं करता है ॥५६॥




पंडित जन मेरे शास्त्रके अनुष्ठान करनेवालोंको योगी कहते है और यह भगवान महादेव महाप्रभु योगेश्वर कहलाते ॥५७॥




यह भगवान् महादेव महेश्वर की सम्पूर्ण प्राणियोंसे अधिक होनेसे और परेसे परे होनेसे परमेष्ठी ब्रह्मा कहलाते है अर्थात गुण कर्मोके अनुसार अनेक नाम है इनके यथार्थ जाननेसे परम पदकी प्राप्ति होती है ॥५८॥




जो इस प्रकार मुझको महायोगियोंके ईश्वर जानते है वह विकल्परहित योगको प्राप्त होता है इसमें कुछ संदेह नही ॥५९॥




मैही परमानन्द स्वरूप मे स्थित होकर सबका प्रेरक देव हू मै ही सबमे नृत्य करता हू अर्थात कर्मानुसार सब भूतोंका भ्रमण कराता हू जो इस बातको जानता है वही वेदका जाननेवाला होता है इस प्रकार तत्त्वज्ञानसे मुझे जानकर परम पदको प्राप्त होजाता है ॥६०॥




ॐ तत्सदिति श्रीपद्मपुराणे शिवगीतासूपनिषत्सु शिवराघवसंवादे ब्रह्मनिरूपणं नाम सप्तदशोध्यायः ॥१७

शिव गीता


 शिवजी द्वारा श्री रामचंद्र जी को शिव गीता का उपदेश 
श्रीरामचन्द्र बोले - हे भगवन् ! आपने मोक्षमार्ग सम्पूर्ण वर्णन किया अब इसका अधिकारि कहिये । इसमें मुझको बड़ा संदेह है । आप विस्तारपूर्वक वर्णन किजिये ॥१॥

श्रीभगवानुवाच ।

श्रीभगवान बोले - हे राम! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, ब्रह्मचारी, गृहस्थ तथा बिना यज्ञोपवीत हुआ ब्राह्मण ॥२॥

वानप्रस्थ, जिसकी स्त्री मृतक होगई हो, संन्यासी, पाशुपत व्रत करनेहारे इसके अधिकारी है और बहुत कहने से क्या है जिसके अन्तःकरणमें शिवजीके पूजनकी प्रबल भक्ति हो ॥३॥

वही इसमें अधिकारी है और जिसका चित्त दूसरी ओर लगा हुआ है वह इसमें अधिकारी नही तथा मुर्ख अंधे बहरे मूक शौचाचाररहित, स्नान संध्यादि विहित कर्मोंसे रहित ॥४॥

अज्ञोंका उपहास करनेवाले, भक्तिहीन, विभूति रुद्राक्षधारी, पाशुपतव्रतवालोंसे द्वेष करनेवाले चिह्नधारी इनमेंसे किसीकाभी इस शास्त्रमें अधिकार नही है ॥५॥

जो मुझसे ब्रह्मके उपदेश करनेवाले गुरुसे पाशुपतके व्रत धारण करनेवालोंसे वा विष्णुसे द्वेष करता है, उसका करोड जन्ममें भी उद्धार नही होता, आज कलके उन पुरुषोंको इस श्लोकके ऊपर विचार करना चाहिये, जो अज्ञानवश एक दुसरेसे द्रोह करते है । वह सब एकही रूप है । शिव तथा विष्णुमें कोइ भी भेद नही है, भेद माननेवालोंकी गति नही होती इसमें प्रमाण (स ब्रह्मा स शिवः स हरिः सेंद्रः सोअक्षरः परमः स्वराट्‌) अर्थात वही परमात्मा शिव हरि इन्द्र अक्षर परम स्वराट है (एक रूपं बहुधा यः करोति) वही एक अनेक रूपको धारण करता है और चाहे अनेक प्रकारके यज्ञादिककर्ममें तत्पर हो, और शिवज्ञानसे रहित हो तो शिवकी भक्ति न होनेका कारण वह संसारसे मुक्त नही होता ॥६॥७॥

जो वेदबाह्य धर्मोमें केवल फलकी इच्छा करके आसक्त होते है, उन्हे केवल दृष्टमात्र फलकी प्राप्ति होती है वे मोक्ष शास्त्रके अधिकारी नही है ॥८॥

काशी, द्वारका, श्रीशैल पर्वत, व्याघ्रपुर, इन क्षेत्रोंमे शरीर त्यागनेसे इस पुरुषको मेरी कृपासे तारक ब्रह्मकी प्राप्ति होती है ॥९॥

जिसके हाथ पैर और सम्पूर्ण इन्द्रिय, तथा मन वशमें है विद्या तप और कीर्ति विद्यमान है, वही तीर्थका फल प्राप्त करते है विकारी मनवाले तीर्थका फल प्राप्त नही कर सकते ॥१०॥

जिस ब्राह्मणका यज्ञोपवीत नही हुआ है उसे अधिकार है परन्तु वह वेदका उच्चारण नही कर सकता केवल माता पिताके श्राद्धकर्ममें उच्चारण कर सकता है ॥११॥

जबतक ब्राह्मणका उपनयन नही होता, तबतक वह शूद्रकी ही समान है, नाम संकीर्तन और ध्यानमें तो सब ही अधिकारी है ॥१२॥

शिवजीमीं तादात्म्य ध्यानसे अर्थात (शिवोऽहं इस प्रकार अन्तःकरनकी एक वृत्ति करनेसे यह प्राणी संसारके पार हो जाता है जिस प्रकार ध्यान तप वेदाध्ययन तथा दूसरे कर्म है यह ध्यान करनेके सहस्त्र भागकी भी तो समान नही हो सकते ॥१३॥

जाति, आश्रम, अंग, देश, काल किंवा आसनादि साधन, यह कोईभी ध्यानयोगकी समान नही है ॥१४॥

चलते फिरते बैठते उठते बोलते शयन करते, अथवा दूसरे कार्योमें भी युक्त हो, और उनके अनेक पातकोंसे युक्त हो, वह भी ध्यान करनेसे मुक्त होजाता है ॥१५॥

इस ध्यानयोगके करनेसे नाश नही होता, नित्यनैमित्तिक कर्मकी समान इसमें प्रत्यवाय नही है, यह थोडासा अनुष्ठान क्रियाभी प्राणीको महाभयसे रक्षा करता है ॥१६॥

अतिआश्चर्य अथवा भय और शोक प्राप्त हुआ हो वा छींकने अथवा और कोई रोगमें जो किस बहानेसेभी मेरा उच्चारण करता है वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है ॥१७॥

महापापीभी यदि देहान्तमें मेरा स्मरण करे तो (नमः शिवाय) इस पंचाक्षरी विद्याका उच्चारण करे तो निःसंदेह उसकी मुक्ती हो जाती है ॥१८॥

जो अपने आत्मासे ही आत्माको देखते सब संसारको शिवरूप देखते है उनको क्षेत्र तीर्थ वा दूसरे कर्मोके करनेसे क्या लाभ है उन्हे करनेकी आवश्यकता नही ॥१९॥

विभूति और रुद्राक्ष सदा सबको धारण करना चाहिये, शिवभक्ति करनेवाले योगी हो अथवा न हो सब रुद्राक्ष धारण करे जिन्हे शिवभक्ति प्राप्त होनेकी इच्छा हो ॥२०॥

जो अग्निहोत्रकी भस्म और रुद्राक्षको धारण करता है, वह महापापी होगा तौ भी निःसन्देह मुक्त हो जायेगा ॥२१॥

और शिव उपासनाके कर्म करै अथवा न करै जो केवल शिवका नामभी जपता है वह सदा मुक्तस्वरूप है ॥२२॥

अन्तकालमें जो रुद्राक्ष और विभूतिको धारण करता है, उसे चाहे महापाप भी लगे हो नरोंमे नीचभी हो किसी प्रकारसे भी यमके दूत उसे स्पर्श करनेको समर्थ नही होते ॥२३॥२४॥

जो कोई बेलवृक्षके जडकी मिट्टी शरीरमें लगाता है उसके निकट यमदूत किसी प्रकार से नही आ सकते ॥२५॥

श्रीराम उवाच ।

श्रीरामचन्द्र बोले- हे भगवन् किन मूर्तियोंमें पूजन करनेसे आप प्रसन्न होते हो, यह जाननेकी मुझे बड़ी इच्छा है, सो आप कृपाकर कहिये ॥२६॥

श्रीभगवान बोले - मृत्तिका, गोबर, भस्म, चंदन, वालुका, काष्ठ, पाषाण, लोहखण्ड, केशरादि रंग, कांसी ,खर्पर (जस्त) पीतल ॥२७॥

तांबा, रुपा, सुवर्ण, अथवा अनेक प्रकारके रत्न पारा अथवा कपूर ॥२८॥

इनमें जो अपनेको प्राप्त हो सके और जो इष्ट हो उससे शिवलिंगकी मूर्ति निर्माण करे, इस प्रकार प्रीतिसे मेरी उपासना करे तो कोटिगुणा फल होता है ॥२९॥

गृहस्थी पुरुशोंको उचित है कि, मृत्तिका काष्ठ लोह कांसी अथवा पाषाणकी प्रतिमा करे, उसमें पूजन करनेसे गृहस्थियोंको सदा आनंद की प्राप्ति होती है ॥३०॥

मृत्तिकाकी प्रतिमा पूजन करनेसे आयु, काष्ठकी प्रतिमा पूजन करनेसे सम्पत्ति, कांस्यकी पूजन करनेसे कुलवृद्धि, लोहकी प्रतिमा पूजन करनेसे धर्मबुद्धि, पाषाणकी प्रतिमा पूजन करनेसे पुत्र प्राप्ति क्रमसे होती है, बिल्ववृक्षके नीचे अथवा उसके फलमें जो मेरी आराधना करता है ॥३१॥

इस लोकमें महालक्ष्मीको प्राप्त होकर अन्तमें शिवलोकको प्राप्त होता है और बिल्ववृक्षके नीचे बैठकर जो विधिपूर्वक मंत्रो को जपे ॥३२॥

तो एकही दिनमे उस जप करनेवालेको पुरश्चरणका फल मिलता है, और जो मनुष्य बेलके वनमें कुटी बनाकर नित्य प्रति निवास करे ॥३३॥

उसके जपमात्रसे ही सब मंत्र सिद्ध हो जाते है, पर्वत के ऊपर नदी के किनारे, बिल्वके नीचे शिवालयमे ॥३४॥

अग्निहोत्रकी शालामें विष्णुके मंदिरमें जो मंत्रका जप करता है, दानव यक्ष राक्षस इसके जपमें विघ्न नही कर सकते ॥३५॥

उसे कोई पास स्पर्श नई कर सकता, वह शिवके सायुज्य लोकको प्राप्त होता है, पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश ॥३६॥

पर्वत किम्वा अपनी आत्माहीमें जो मनुष्य मेरा पूजन करता है, एक लवमात्रकी पूजा करनेसे उसे सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है ॥३७॥

हे राम अपने आत्मामें जो पूजन करता है, उसकी बराबरी दूसरी पूजा नही आत्मामें पूजन करनेहारा चाण्डालभी मेरे लोकको प्राप्त होता है । सम्पूर्ण शुभकर्म आत्माहीको अर्पण करना, उसी का विचार करना, पापाचरण न करना, यही आत्माकी पूजा है ॥३८॥

ऊर्णावस्त्रके आसनपर पूजा करनेसे मनुष्यको सब कामनाकी प्राप्ति हो जाती है, मृगचर्मके आसनपर पूजा करनेसे मुक्ति और व्याघ्रचर्मपर पूजा करनेसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ॥३९॥

कुशासनपर बैठकर पूजा करनेसे ज्ञान, पत्रके आसनपर आरोग्यता, पाषाणके आसनपर दुःख और काश्ठके आसनपर पूजा करनेसे अनेक प्रकारके रोग होते है ॥४०॥

वस्त्रपे बैठनेसे लक्ष्मी प्राप्ति और पृथ्वीपर बैठकर जपनेसे मंत्र सिद्ध नही होता, उत्तर वा पूर्वको मुखकर जप और पूजाका प्रारम्भ करना उचित है ॥४१॥

हे रामचन्द्र! सावधान होकर सुनो, अब मालाकी विधि कहता हूँ, स्फटिककी मालासे साम्राज्य प्राप्त होता है पुत्रजीव जियापोतेकी मालासे अत्यन्त धनकी प्राप्ति होती है ॥४२॥

कुशकी ग्रन्थिकी मालासे आत्मज्ञान और रुद्राक्षकी मालासे सम्पूर्ण कार्योकी सिद्धि होती है, प्रवाल (मूंगा) की मालासे सब लोकके वश करने को सामर्थ्य होती है ॥४३॥

आमलेके फलोंकी माला मोक्षकी देनेवाली है, मोतियोंकी माला सम्पूर्ण विद्याओंकी देनेहारी है ॥४४॥

माणिक्यकी माला त्रिलोकीकी स्त्रियोंको वश करनेहारी है नील मरकत मणिकी माला शत्रु को भय देती है ॥४५॥

सोनेकी बनी माला बड़ी शोभाको तथा लक्ष्मीको देती है, चांदीकी मालासे मनेच्छित कन्या प्राप्त होती है ॥४६॥

और एक पारेकी माला जो औषधिद्वारा बनती है, वह सम्पूर्णही कामनाको प्राप्त करती है एक सौ आठ १०८ मणियोंकी माला सबसे उत्तम होती है ॥४७॥

सौ दानेकी उत्तम, पचास दानेकी मध्यम, अथवा ५७ दानेकी भी मध्यम है और सत्ताईस दानेकी माला अधम कहाती है ॥४८॥

पच्चीस दानोंकी भी अधम होती है,जो सौ दानोंकी माला हो तो पचास अक्षर (अ) से (ल) तक उलटे सीधे क्रमसे हो सकते है, अर्थात मेरुतक एकबार गिन सकता है ॥४९॥

इस प्रकारसे स्पष्ट स्थापन करे, और किसीको माला न दिखावे गुप्त जपे ॥५०॥

जो अक्षरोंकी कल्पना करके मालाद्वारा जप किया जाता है, वर्णविन्यास (कल्पना) से एकही बारमें उसका पुरश्चरण हो जाता है ॥५१॥

बायां चरण गुदस्थानपर रक्खे अर्थात एडी लगावे और दाहिना चरण उपस्थके ऊपर रखकर बैठे, यह उत्तम और अतिश्रेष्ठ योनिबंध आसन कहाता है ॥५२॥

जो योनिमुद्राके आसनसे बैठकर सावधान हो जप करता है कोई मंत्र हो अवश्य सिद्धिकी प्राप्ति हो जाती है ॥५३॥

छिन्न, रुद्र, स्तंभित, मिलित, मूर्च्छित, सुप्त, मत्त, हीनवीर्य, दग्ध, त्रस्त, शत्रुपक्षके जाननेवाले यह मंत्र शास्त्रमें मंत्रोके प्रकार लिखे है उनमें इनके लक्षण लिखे है कि इस प्रकारका मंत्र ऐसा होता है ॥५४॥

तथा बालक, यौवन, वृद्ध, मत्त इत्यादि किसी प्रकारका भी दूषित मंत्र क्यो न हो योनिमुद्राके आसनसे जप करे तो सिद्ध हो जाता है ॥५५॥

इसी मुद्रासे वे मंत्र सिद्ध होते है दूसरे प्रकारसे नही होते उस कालसे लेकर मध्याह्न कालतक मंत्रका जप करना कहा है, इससे उपरान्त जपे तो कर्ताका नाश होता है यह सम्पूर्ण काम्यफलोंके पुरश्चरणकी विधि है ॥५६॥५७॥

नित्य नैमित्तिक तपश्चर्याका नियम नही है, चाहे जबतक जितनी इच्छा हो जप करता रहे, उसमे कुछ दोष नही होता ॥५८॥

जो मेरी मूर्तिका ध्यान करता हुआ निष्काम बुद्धिसे रुद्रजप अथवा षडक्षर मंत्र ॐकार सहित जितेन्द्रिय होकर जपता (ॐ नमः शिवाय) यह षडक्षर मंत्र है ॥५९॥

हे राम! अथवा अथर्वशीर्ष वा कैवल्य उपनिषदके जो मन्त्र जपता है वह उसी देहसे स्वयं शिव हो जाता है अर्थात् सायुज्य मुक्तिको प्राप्त होता है ॥६०॥

जो नित्यप्रति शिवगीताको पढता और नित्य जप करता वा श्रवण करता है वह निःसन्देह संसारसे मुक्त हो जाता है ॥६१॥

सूत उवाच ।

सूतजी बोले, हे शौनकादि ऋषियो ! भगवान् शिवजी रामचन्द्रजीसे इस प्रकार उपदेश कर वहां ही अन्तर्धान होगये और आत्मज्ञानके प्राप्त होनेसे रामचन्द्रनेभी अपनेको कृतार्थ माना ॥६२॥

और एकाग्र चित्तसे ध्यान करते है उनके हाथमें मुक्ति स्थित रहती है, इस कारण हे मुनियो! नित्य प्रति सावधान होकर शिवगीताको सुनो ॥६४॥

अनायास मुक्ति हो जायगी इसमें कुछ भी संदेह नही, इसमें शरीरको क्लेश नही, मानसिक क्लेश नही, धनका व्यय नही ॥६५॥

न और किसी प्रकारकी पीडा है, केवल श्रवणसे ही मुक्ति हो जाती है, हे ऋषियो! इस कारण तुम नित्यप्रति शिवगीताका श्रवण करो ॥६६॥

ऋषय ऊचुः ।

ऋषि बोले, हे सूतजी! आजसे तुम्ही हमारे आचार्य पिता और गुरु हो जो कि, आपने हमको अविद्याके पार तार दिया ॥६७॥

जन्म देनेवालेसे ब्रह्मज्ञान देनेवालेको गौरव अधिक है इसकारण हे सूत! सत्यही तुमसे अधिक कोई दूसरा गुरु हमारा नही है ॥६८॥

व्यासजी बोले - ऐसा कहकर सम्पूर्ण ऋषि सायंसंध्या करनेके निमित्त गये, और सूतपुत्रकी बडाई करते गोमती नदीके समीप ध्यान करने लगे शिवपरायण हुए ॥६९॥

इति श्रीपद्मपुराणे उपरिभागे शिवगीतासूपनिषत्सुब्रह्मविद्यायायोगशास्त्रे शिवराघवसंवादे गीताधिकारनिरूपणं नाम षोडशोऽध्यायः ॥१६

शनि बाधा की निवारण कथा


प्राचीन काल में रघुवंश में दशरथ नामक प्रसिद्ध चक्रवती राजा हुए, जो सातों द्वीपों के स्वामी थे। उनके राज्यकाल में एक दिन ज्योतिषियों ने शनि को कृत्तिका के अन्तिम चरण में देखकर राजा से कहा कि अब यह शनि रोहिणी का भेदन कर जायेगा। इसको ‘रोहिणी-शकट-भेदन’ कहते हैं। यह योग देवता और असुर दोनों ही के लिये भयप्रद होता है तथा इसके पश्चात् बारह वर्ष का घोर दुःखदायी अकाल पड़ता है। ज्योतिषियों की यह बात मन्त्रियों के साथ राजा ने सुनी, इसके साथ ही नगर और जनपद-वासियों को बहुत व्याकुल देखा। उस समय नगर और ग्रामों के निवासी भयभीत होकर राजा से इस विपत्ति से रक्षा की प्रार्थना करने लगे। अपने प्रजाजनों की व्याकुलता को देखकर राजा दशरथ वशिष्ठ ऋषि तथा प्रमुख ब्राह्मणों से कहने लगे- ‘हे ब्राह्मणों ! इस समस्या का कोई समाधान मुझे बताइए।’।।

इस पर वशिष्ठ जी कहने लगे- ‘प्रजापति के इस नक्षत्र (रोहिणी) में यदि शनि भेदन होता है तो प्रजाजन सुखी कैसे रह सकते हें। इस योग के दुष्प्रभाव से तो ब्रह्मा एवं इन्द्रादिक देवता भी रक्षा करने में असमर्थ हैं। विद्वानों के यह वचन सुनकर राजा को ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि वे इस संकट की घड़ी को न टाल सके तो उन्हें कायर कहा जाएगा। अतः राजा विचार करके साहस बटोरकर दिव्य धनुष तथा दिव्य आयुधों से युक्त होकर रथ को तीव्र गति से चलाते हुए चन्द्रमा से भी तीन लाख योजन ऊपर नक्षत्र मण्डल में ले गए। मणियों तथा रत्नों से सुशोभित स्वर्ण-निर्मित रथ में बैठे हुए महाबली राजा ने रोहिणी के पीछे आकर रथ को रोक दिया।
सफेद घोड़ों से युक्त और ऊँची-ऊँची ध्वजाओं से सुशोभित मुकुट में जड़े हुए बहुमुल्य रत्नों से प्रकाशमान राजा दशरथ उस समय आकाश में दूसरे सूर्य की भांति चमक रहे थे। शनि को कृत्तिका नक्षत्र के पश्चात् रोहिनी नक्षत्र में प्रवेश का इच्छुक देखकर राजा दशरथ बाण युक्त धनुष कानों तक खींचकर भृकुटियां तानकर शनि के सामने डटकर खड़े हो गए।अपने सामने देव-असुरों के संहारक अस्त्रों से युक्त दशरथ को खड़ा देखकर शनि थोड़ा डर गया और हंसते हुए राजा से कहने लगा।

‘ हे राजेन्द्र ! तुम्हारे जैसा पुरुषार्थ मैंने किसी में नहीं देखा, क्योंकि देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और सर्प जाति के जीव मेरे देखने मात्र से ही भय-ग्रस्त हो जाते हैं। हे राजेन्द्र ! मैं तुम्हारी तपस्या और पुरुषार्थ से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। अतः हे रघुनन्दन ! जो तुम्हारी इच्छा हो वर मां लो, मैं तुम्हें दूंगा।

दशरथ ने कहा- हे सूर्य-पुत्र शनि-देव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं केवल एक ही वर मांगता हूँ कि जब तक नदियां, सागर, चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी इस संसार में है, तब तक आप रोहिणी शकट भेदन कदापि न करें। मैं केवल यही वर मांगता हूँ और मेरी कोई इच्छा नहीं है।’

तब शनि ने ‘एवमस्तु’ कहकर वर दे दिया। इस प्रकार शनि से वर प्राप्त करके राजा अपने को धन्य समझने लगा। तब शनि ने कहा- ‘मैं पुमसे परम प्रसन्न हूँ, तुम और भी वर मांग लो।

तब राजा ने प्रसन्न होकर शनि से दूसरा वर मांगा। तब शनि कहने लगे- ‘हे सूर्य वंशियो के पुत्र तुम निर्भय रहो, निर्भय रहो। बारह वर्ष तक तुम्हारे राज्य में अकाल नहीं पड़ेगा। तुम्हारी यश-कीर्ति तीनों लोकों में फैलेगी। ऐसा वर पाकर राजा प्रसन्न होकर धनुष-बाण रथ में रखकर सरस्वती देवी तथा गणपति का ध्यान करके शनि की स्तुति इस प्रकार करने लगा

दशरथकृत शनि स्तोत्र

जिनके शरीर का वर्ण कृष्ण नील तथा भगवान् शंकर के समान है, उन शनि देव को नमस्कार है। जो जगत् के लिए कालाग्नि एवं कृतान्त रुप हैं, उन शनैश्चर को बार-बार नमस्कार है।।

जिनका शरीर कंकाल जैसा मांस-हीन तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेव को नमस्कार है। जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट और भयानक आकार है, उन शनैश्चर देव को नमस्कार है।।

जिनके शरीर का ढांचा फैला हुआ है, जिनके रोएं बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु सूके शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरुप हैं, उन शनिदेव को बार-बार प्रणाम है।।

हे शने ! आपके नेत्र कोटर के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर रौद्र, भीषण और विकराल हैं, आपको नमस्कार है।।

वलीमूख ! आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है। सूर्यनन्दन ! भास्कर-पुत्र ! अभय देने वाले देवता ! आपको प्रणाम है।।

नीचे की ओर दृष्टि रखने वाले शनिदेव ! आपको नमस्कार है। संवर्तक ! आपको प्रणाम है। मन्दगति से चलने वाले शनैश्चर ! आपका प्रतीक तलवार के समान है, आपको पुनः-पुनः प्रणाम है।।

आपने तपस्या से अपनी देह को दग्ध कर लिया है, आप सदा योगाभ्यास में तत्पर, भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं। आपको सदा सर्वदा नमस्कार है।

ज्ञाननेत्र ! आपको प्रणाम है। काश्यपनन्दन सूर्यपुत्र शनिदेव आपको नमस्कार है। आप सन्तुष्ट होने पर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण हर लेते हैं।

देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं।

देव मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।


राजा दशरथ के इस प्रकार प्रार्थना करने पर ग्रहों के राजा महाबलवान् सूर्य-पुत्र शनैश्चर बोले- ‘उत्तम व्रत के पालक राजा दशरथ ! तुम्हारी इस स्तुति से मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। रघुनन्दन ! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं अवश्य दूंगा।

राजा दशरथ बोले- ‘प्रभु ! आज से आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें। बस यही मेरा प्रिय वर है।


शनि ने कहा- ‘हे राजन् ! यद्यपि ऐसा वर मैं किसी को देता नहीं हूँ, किन्तु सन्तुष्ट होने के कारण तुमको दे रहा हूँ। तुम्हारे द्वारा कहे गये इस स्तोत्र को जो मनुष्य, देव अथवा असुर, सिद्ध तथा विद्वान आदि पढ़ेंगे, उन्हें शनि बाधा नहीं होगी। जिनके गोचर में महादशा या अन्तर्दशा में अथवा लग्न स्थान, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम या द्वादश स्थान में शनि हो वे व्यक्ति यदि पवित्र होकर प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल के समय इस स्तोत्र को ध्यान देकर पढ़ेंगे, उनको निश्चित रुप से मैं पीड़ित नहीं करुंगा।

हे राजन ! जिनको मेरी कृपा प्राप्त करनी है, उन्हें चाहिए कि वे मेरी एक लोहे की मीर्ति बनाएं, जिसकी चार भुजाएं हो और उनमें धनुष, भाला और बाण धारण किए हुए हो। (टीन के डिब्बे या कनस्तर को कैंची से काटकर ऐसी प्रतिमा घर पर ही बनाई जा सकती है। इसके ऊपर काला पेण्ट या तेल में काजल मिलाकर काला रंग कर देना चाहिए) इसके पश्चात् दस हजार की संख्या में इस स्तोत्र का जप करें, जप का दशांश हवन करे, जिसकी सामग्री काले तिल, शमी-पत्र, घी, नील कमल, खीर, चीनी मिलाकर बनाई जाए। इसके पश्चात् घी तथा दूध से निर्मित पदार्थों से ब्राह्मणों को भोजन कराएं। उपरोक्त शनि की प्रतिमा को तिल के तेल या तिलों के ढेर में रखकर विधि-विधान-पूर्वक मन्त्र द्वारा पूजन करें, कुंकुम इत्यादि चढ़ाएं, नीली तथा काली तुलसी, शमी-पत्र मुझे प्रसन्न करने के लिए अर्पित करें।

काले रंग के वस्त्र, बैल, दूध देने वाली गाय- बछड़े सहित दान में दें। हे राजन ! जो मन्त्रोद्धारपूर्वक इस स्तोत्र से मेरी पूजा करता है, पूजा करके हाथ जोड़कर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसको मैं किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होने दूंगा। इतना ही नहीं, अन्य ग्रहों की पीड़ा से भी मैं उसकी रक्षा करुंगा। इस तरह अनेकों प्रकार से मैं जगत को पीड़ा से मुक्त करता हूँ।