भगवान शंकर के पूर्ण रूप काल भैरव

एक बार सुमेरु पर्वत पर बैठे हुए ब्रम्हाजी के पास जाकर देवताओं ने उनसे अविनाशी तत्व बताने का अनुरोध किया | शिवजी की माया से मोहित ब्रह्माजी उस तत्व को न जानते हुए भी इस प्रकार कहने लगे - मैं ही इस संसार को उत्पन्न करने वाला स्वयंभू, अजन्मा, एक मात्र ईश्वर , अनादी भक्ति, ब्रह्म घोर निरंजन आत्मा हूँ| मैं ही प्रवृति उर निवृति का मूलाधार , सर्वलीन पूर्ण ब्रह्म हूँ | ब्रह्मा जी ऐसा की पर मुनि मंडली में विद्यमान विष्णु जी ने उन्हें समझाते हुए कहा की मेरी आज्ञा से तो तुम सृष्टी के रचियता बने हो, मेरा अनादर करके तुम अपने प्रभुत्व की बात कैसे कर रहे हो ? इस प्रकार ब्रह्मा और विष्णु अपना-अपना प्रभुत्व स्थापित करने लगे और अपने पक्ष के समर्थन में शास्त्र वाक्य उद्घृत करने लगे| अंततः वेदों से पूछने का निर्णय हुआ तो स्वरुप धारण करके आये चारों वेदों ने क्रमशः अपना मत६ इस प्रकार प्रकट किया -
ऋग्वेद- जिसके भीतर समस्त भूत निहित हैं तथा जिससे सब कुछ प्रवत्त होता है और जिसे परमात्व कहा जाता है, वह एक रूद्र रूप ही है |
यजुर्वेद- जिसके द्वारा हम वेद भी प्रमाणित होते हैं तथा जो ईश्वर के संपूर्ण यज्ञों तथा योगों से भजन किया जाता है, सबका दृष्टा वह एक शिव ही हैं|
सामवेद- जो समस्त संसारी जनों को भरमाता है, जिसे योगी जन ढूँढ़ते हैं और जिसकी भांति से सारा संसार प्रकाशित होता है, वे एक त्र्यम्बक शिवजी ही हैं |
अथर्ववेद- जिसकी भक्ति से साक्षात्कार होता है और जो सब या सुख - दुःख अतीत अनादी ब्रम्ह हैं, वे केवल एक शंकर जी ही हैं|
विष्णु ने वेदों के इस कथन को प्रताप बताते हुए नित्य शिवा से रमण करने वाले, दिगंबर पीतवर्ण धूलि धूसरित प्रेम नाथ, कुवेटा धारी, सर्वा वेष्टित, वृपन वाही, निःसंग,शिवजी को पर ब्रम्ह मानने से इनकार कर दिया| ब्रम्हा-विष्णु विवाद को सुनकर ओंकार ने शिवजी की ज्योति, नित्य और सनातन परब्रम्ह बताया परन्तु फिर भी शिव माया से मोहित ब्रम्हा विष्णु की बुद्धि नहीं बदली |

उस समय उन दोनों के मध्य आदि अंत रहित एक ऐसी विशाल ज्योति प्रकट हुई की उससे ब्रम्हा का पंचम सिर जलने लगा| इतने में त्रिशूलधारी नील-लोहित शिव वहां प्रकट हुए तो अज्ञानतावश ब्रम्हा उन्हें अपना पुत्र समझकर अपनी शरण में आने को कहने लगे| ब्रम्हा की संपूर्ण बातें सुनकर शिवजी अत्यंत क्रुद्ध हुए और उन्होंने तत्काल भैरव को प्रकट कर उससे ब्रम्हा पर शासन करने का आदेश दिया| आज्ञा का पालन करते हुए भैरव ने अपनी बायीं ऊँगली के नखाग्र से ब्रम्हाजी का पंचम सिर काट डाला| भयभीत ब्रम्हा शत रुद्री का पाठ करते हुए शिवजी के शरण हुए|ब्रम्हा और विष्णु दोनों को सत्य की प्रतीति हो गयी और वे दोनों शिवजी की महिमा का गान करने लगे| यह देखकर शिवजी शांत हुए और उन दोनों को अभयदान दिया| इसके उपरान्त शिवजी ने उसके भीषण होने के कारण 'भैरव' और काल को भी भयभीत करने वाला होने के कारण 'काल भैरव' तथा भक्तों के पापों को तत्काल नष्ट करने वाला होने के कारण 'पाप भक्षक' नाम देकर उसे काशीपुरी का अधिपति बना दिया | फिर कहा की भैरव तुम इन ब्रम्हा विष्णु को मानते हुए ब्रम्हा के कपाल को धारण करके इसी के आश्रय से भिक्षा वृति करते हुए वाराणसी में चले जाओ | वहां उस नगरी के प्रभाव से तुम ब्रम्ह हत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे |

शिवजी की आज्ञा से भैरव जी हाथ में कपाल लेकर ज्योंही काशी की ओर चले, ब्रम्ह हत्या उनके पीछे पीछे हो चली| विष्णु जी ने उनकी स्तुति करते हुए उनसे अपने को उनकी माया से मोहित न होने का वरदान माँगा | विष्णु जी ने ब्रम्ह हत्या के भैरव जी के पीछा करने की माया पूछना चाही तो ब्रम्ह हत्या ने बताया की वह तो अपने आप को पवित्र और मुक्त होने के लिए भैरव का अनुसरण कर रही है |भैरव जी ज्यों ही काशी पहुंचे त्यों ही उनके हाथ से चिमटा और कपाल छूटकर पृथ्वी पर गिर गया और तब से उस स्थान का नाम कपालमोचन तीर्थ पड़ गया | इस तीर्थ मैं जाकर सविधि पिंडदान और देव-पितृ-तर्पण करने से मनुष्य ब्रम्ह हत्या के पाप से निवृत हो जाता है |

|| ॐ नमः शिवाय ||


श्री कृष्ण का मानव जीवन जीने का उपदेश

गीता प्रसार  
श्रीमद भगवद एकादश स्कंध अध्याय ७ श्लोक ६-१२

तुम अपने आत्मीय स्वजन और बन्धु-बांधवों का स्नेह सम्बन्ध छोड़ दो और अनन्य प्रेम से मुझमें अपना मन लगाकर सम दृष्टी से पृथ्वी पर स्वच्छंद विचरण करो|

इस जगत में जो कुछ मन से सोचा जाता है, वाणी से कहा जाता है, नेत्रों से देखा जाता है, और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान है, स्वप्न की तरह मन का विलास है| इसीलिए माया-मात्र है, मिथ्या है-ऐसा जान लो |

जिस पुरुष का मन अशांत है, असयंत है उसी को पागलों की तरह अनेकों वस्तुयें मालूम पड़ती हैं ; वास्तव में यह चित्त का भ्रम ही है | नानात्व का भ्रम हो जाने पर ही "यह गुण है" और "यह दोष है" इस प्रकार की कल्पना करी जाती है | जिसकी बुद्धि में गुण और दोष का भेद बैठ गया हो, दृणमूल हो गया है, उसी के लिए कर्म, अकर्म और विकर्म रूप का प्रतिपादन हुआ है |

जो पुरुष गुण और दोष बुद्धि से अतीत हो जाता है, वह बालक के समान निषिद्ध कर्मों से निवृत्त होता है ; परन्तु दोष बुद्धि से नहीं | वह विहित कर्मों का अनुष्ठान भी करता है, परन्तु गुण बुद्धि से नहीं |

जिसने श्रुतियों के तात्पर्य का यथार्थ ज्ञान ही प्राप्त नहीं कर लिया, बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चय से संपन्न हो गया है, वह समस्त प्राणियों का हितैषी सुहृद होता है और उसकी साड़ी वृत्तियाँ सर्वथा शांत रहती हैं| वह समस्त प्रतीयमान विश्व को मेरा ही स्वरुप - आत्मस्वरूप देखता है; इसलिए उसे फिर कभी जन्म-मृत्यु के चक्र में नहीं पड़ना पड़ता |

|| जय श्री कृष्ण ||

शिव द्वारा प्रेम का रहस्य


शिव द्वारा प्रेम का रहस्य

पार्वती शिव की केवल अर्धांगिनी ही नहीं अपितु शिष्या भी बनी, वे  नित्य ही अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए शिव से अनेकों प्रश्न पूछती और उनपर  चर्चा करती ! एक दिन उन्होंने शिव से कहा -

पार्वती:- प्रेम क्या है बताइए महादेव, कृप्या बताइए की प्रेम का रहस्य क्या है, क्या है इसका वास्तविक स्वरुप, क्या है इसका भविष्य ! आप तो हमारे गुरु की भी भूमिका निभा रहे हैं इस प्रेम ज्ञान से अवगत कराना भी तो आपका ही दायित्व है ! बताइए महादेव !

शिव:- प्रेम क्या है ! यह तुम पूछ रही हो पार्वती? प्रेम का रहस्य क्या है? प्रेम का स्वरुप क्या है? तुमने ही प्रेम के अनेको रूप उजागर किये हैं पार्वती ! तुमसे ही प्रेम की अनेक अनुभूतियाँ हुयी ! तुम्हारे प्रश्न में ही तुम्हारा उत्तर निहित है !

पार्वती:- क्या इन विभिन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति संभव है?

शिव:- सती के रूप में जब तुम अपने प्राण त्याग जब तुम दूर चली गयी, मेरा जीवन, मेरा संसार, मेरा दायित्व, सब निरर्थक और निराधार हो गया ! मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धाराएँ बहने लगी ! अपने से दूर कर तुमने मुझे मुझ से भी दूर कर दिया था पार्वती ! येही तो प्रेम है पार्वती !तुम्हारे अभाव में मेरे अधूरेपन की अति से इस सृष्ठी का अपूर्ण हो जाना येही प्रेम है ! तुम्हारे और मेरे पुनह मिलन कराने हेतु इस समस्त ब्रह्माण्ड का हर संभव प्रयास करना हर संभव षड्यंत्र रचना, इसका कारण हमारा असीम प्रेम ही तो है ! तुम्हारा पार्वती के रूप में पुनह जनम लेकर मेरे एकांकीपन और मुझे मेरे वैराग्य से बहार नकलने पर विवश करना, और मेरा विवश हो जाना यह प्रेम ही तो है !

जब जब अन्नपूर्णा के रूप में तुम मेरी क्षुधा को बिना प्रतिबन्धन के शांत करती हो या कामख्या के रूप में मेरी कामना करती हो तो वह प्रेम की अनुभूति ही है !

तुम्हारे सौम्य और सहज गौरी रूप में हर प्रकार के अधिकार जब मैं तुम पर  व्यक्त करता हूँ और तुम उन अधिकारों को मान्यता देती हो और मुझे विशवास दिलाती रहती हो की सिवाए मेरे इस संसार में तुम्हे किसी का वर्चस्व स्वीकार नहीं तो वह प्रेम की अनुभूति ही होती है !

जब तुम मनोरंजन हेतु मुझे चौसर में पराजित करती हो तो भी विजय मेरी ही होती है, क्योंकि उस समय तुम्हारे मुख पर आई प्रसन्नता मुझे मेरे दायित्व की पूर्णता का आभास कराती है ! तुम्हे सुखी देख कर मुझे सुख का जो आभास होता है यही तो प्रेम है पार्वती !

जब तुमने अपने अस्त्र वहन कर शक्तिशाली दुर्गा रूप में अपने संरक्षण में मुझे शसस्त बनाया तो वह अनुभूति प्रेम की ही थी !

जब तुमने काली के रूप में संहार कर नृत्य करते हुए मेरे शरीर पर पाँव रखा तो तुम्हे अपनी भूल का आभास हुआ, और तुम्हारी जिह्वया बहार निकली, वही प्रेम था पार्वती !

जब तुम अपना सौंदर्यपूर्ण ललिता रूप जोकि अति भयंकर भैरवी रूप भी है, का दर्शन देती हो, और जब मैं तुम्हारे अति-भाग्यशाली मंगला रूप जोकि उग्र चंडिका रूप भी है, का अनुभव करता हूँ, जब मैं तुम्हे पूर्णतया देखता हूँ बिना किसी प्रयत्न के, तो मैं अनुभव करता हूँ की मैं सत्य देखने में सक्षम हूँ ! जब तुम मुझे अपने सम्पूर्ण रूपों के दर्शन देती हो और मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारा विश्वासपात्र हूँ ! इस तरह तुम मेरे लिए एक दर्पण बन जाती हो जिसमें झांक कर में स्वयं को देख पाता हूँ की मैं कौन हूँ ! तुम अपने दर्शन से साक्षात् कराती हो और मैं आनंदविभोर हो नाच उठता हूँ और नटराज कहलाता हूँ ! यही तो प्रेम है !

जब तुम बारम्बार स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर मुझे आभास कराती हो की मैं तुम्हारे योग्य हूँ, जब तुमने मेरी वास्तविकता को प्रतिबिम्भित कर मेरे दर्पण के रूप को धारण कर लिया वही तो प्रेम था पार्वती !

प्रेम के प्रति तुम्हारी उत्सुकता और जिज्ञासा अब शांत हुई की नहीं?

शिव-विष्णु लीला

शिव-विष्णु लीला 

एक बार भगवान नारायण अपने वैकुंठलोक में सोये हुए थे. स्वप्न में वो क्या देखते है कि करोड़ो चन्द्रमाओ कि कन्तिवाले, त्रिशूल-डमरू-धारी, स्वर्णाभरण -भूषित, संजय-वन्दित , अणिमादि सिद्धिसेवित त्रिलोचन भगवान शिव प्रेम और आनंदातिरेक से उन्मत होकर उनके सामने नृत्य कर रहे है, उन्हें देखकर भगवान विष्णु हर्ष-गदगद से सहसा शैयापर उठकर बैठ गये और कुछ देर तक ध्यानस्थ बैठे रहे. 

उन्हें इस प्रकार बैठे देखर श्री लक्ष्मी जी उनसे पूछने लगी कि "भगवान! आपके इस प्रकार उठ बैठने का क्या कारण है?" भगवान ने कुछ देर तक उनके इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और आनंद में निमग्न हुए चुपचाप बैठे रहे. अंत में कुछ स्वस्थ होने पर वे गदगद-कंठ से इस प्रकार बोले - "हे देवि! मैंने अभी स्वप्न में भगवान श्री महेश्वर का दर्शन किया है, उनकी छबी ऍसी अपूर्व आनंदमय एवं मनोहर थी कि देखते ही बनती थी. मालूम होता है, शंकर ने मुझे स्मरण किया है. अहोभाग्य! चलो, कैलाश में चलकर हमलोग महादेव के दर्शन करते है . 

यह कहकर दोनों कैलाश की और चल दिए. मुश्किल से आधी दूर ही गये होंगे की देखते है भगवान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी और आ रहे है, अब भगवान के आनंद का क्या ठिकाना? मानो घर बैठे निधि मिल गई. पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले. मानो प्रेम और आनंद का समुन्द्र उमड़ पड़ा. एक दुसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आन्दाश्रू बहने लगे और शरीर पुलकायमान हो गया. दोनों ही एक दुसरे से लिपटे हुए कुछ देर मुक्वत खड़े रहे. प्रश्नोतर होनेपर मालूम हुए की शंकर जी ने भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न देखा मानो विष्णु भगवान को वे उसी रूप में देख रहे है, जिस रूप में वे अब उनके सामने खड़े थे. दोनों के स्वप्न का वृतांत अवगत होने पर दोनों ही लगे एक दुसरे से अपने यहाँ लिवा ले जाने का आग्रह करने.. नारायण कहते वैकुण्ठ चलो और शम्भू कहते कैलाश की और प्रस्थान कीजिये. दोनों के आग्रह में इतना अलौकिक प्रेम था कि यह निर्णय करना कठिन हो गया कि कहाँ चला जाये? 

इतने में ही क्या देखते है वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारद जी कही से आ निकले. बस, फिर क्या था? लगे दोनों ही उनसे निर्णय कराने कि कहाँ चला जाये? बेचारे नारद जी स्वयं परेशान थे उस अलौकिक मिलन को देखकर , वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गये और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान करने. अब निर्णय कौन करे? 

अंत में यह तय हुई कि भगवती उमा जो कह दे वही ठीक है. भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रही, अंत में दोनों को लक्ष्य करके बोली -"हे नाथ! हे नारायण! आपलोगों के निश्छल, अनन्य एवम अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता है कि आपके निवास-स्थान अलग-अलग नहीं है, जो कैलास है वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है वही कैलाश है, केवल नाम में ही भेद है. यही नहीं , मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में दो है. और तो और, मुझे तो अब यह स्पष्ट दिखने लगा ही आपके भार्याये भी एक ही है, दो नहीं. जो मै हु वही श्रीलक्ष्मी है और जो श्रीलक्ष्मी है वही मै हु.. केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ धारणा हो गई है कि आपलोगों में से एक के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानो दुसरे के प्रति ही करता है, एक की जो पूजा करता है, वह स्वाभाविक ही दुसरे कि भी करता है और जो एक को अपूज्य मानता है वह दुसरे कि भी पूजा नहीं करता... मै तो यह समझती हु कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकालतक घोर पतन होता है, मै देखती हु कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्र्वच्चना कर रहे है, मुझे चक्कर में डाल रहे है, मुझे भुला रहे है. अब मेरी यह प्रार्थना है कि आपलोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिये .. श्रीविष्णु यह समझे कि हम शिवरूप में से वैकुण्ठ जा रहे है और महेश्वर यह माने कि हम विष्णुरूप से कैलाश गमन कर रहे है .. इस उत्तर को सुनकर दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा कि प्रशंसा करते हुए दोनों अपने अपने लोक को चले गये. 

लौटकर जब विष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्री लक्ष्मी जी उनसे पूछने लगी कि - 'प्रभु! सबसे अधिक प्रिय आपको कौन है? इस पर भगवान बोले - 'प्रिय! मेरे प्रियतम केवल श्री शंकर है, देहधारियो को अपने देह कि भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय है, एक बार मै और शंकर दोनों ही पृथ्वी पर घुमने निकले, मै अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम की खोज में देश-देशांतर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा. थोड़ी देर के बाद ही मेरी श्री शंकर जी से भेंट हो गई. ज्यो ही हमलोगों की चार आँखे हुई कि हमलोग पुर्वजन्मअर्जित विद्या कि भांति एक दुसरे कि प्रति आक्रष्ट हो गये "वास्तव में मै ही जनार्दन हु. और मै ही महादेव हु, अलग-अलग दो घडो में रखे हुए जल कि भांति मुझमे और उनमे कोई अंतर नहीं है, शंकरजी के अतिरिक्त शिवकी अर्चा करनेवाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है, इसके विपरीत जो शिव कि पूजा नहीं करतेवे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते...

श्री कृष्ण द्वारा प्रेम रहस्य

श्री कृष्ण द्वारा प्रेम रहस्य 

श्रीमद भगवत कथा में श्री कृष्ण स्वयं प्रेम के विषय में कहते हुए :- जो प्रेम करने पर प्रेम करता है उसका तो सारा उद्योग (मेहनत) स्वार्थ को लेकर है | लेना देना मात्र है | न तो उन लोगों में सौहाद्र है और न तो धर्म |उनका प्रेम तो केवल स्वार्थ के लिए ही है ; इसके अतिरिक्त उनका कोई प्रयोजन नहीं है | 

जो लोग प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं- जैसे स्वभाव से ही करुणाशील सज्जन और माता पिता - उनका ह्रदय स्वभाव से ही सौहाद्र से, हितैषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहार में निश्चल सत्य और पूर्ण धर्म भी है |

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते , न प्रेम करने वालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं है | ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं : 

पहले वे हैं जो अपने स्वरुप में मस्त रहते हैं - जिनकी दृष्टी में कभी द्वेत भासता ही नहीं | 
दूसरे वे, जिन्हें द्वेत तो भासता है, परंतू जो कृत-कृत्य हो चुके हैं; उनका किसी से कोई प्रयोजान नहीं है | 
तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं की हमसे कौन प्रेम करता है | 
और चौथे वे हैं, जो जानबूझ कर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरु तुल्य लोगों से भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते हैं | 

आगे श्री कृष्ण गोपियों से कहते हैं :- मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा की करना चाहिए | मैं ऐसा केवल इसीलिए करता हूँ की उनकी चित्त वृत्ति और भी मुझमे लगे, निरंतर लगी ही रहे| जैसे निर्धन पुरुष को कभी बहुत सा धन मिल जाये और फिर खो जाये तो उसका ह्रदय खोये हुए धन की चिंता से भर जाता है , ऐसे ही मैं भी अपने प्रेमियों से मिल मिलकर छिप छिप जाता हूँ | इसमें संदेह नहीं है की तुम लोगों ने मेरे लिए लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और अपने सगे सम्बन्धियों को भी छोड़ दिया है| ऐसी स्तिथि में तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं न जाये, अपने सौंदर्य और सुहाग की चिंता न करने लगे, मुझमे ही लगी रहे- इसीलिए परोक्ष रूप से तुम लोगों से प्रेम करता हुआ ही मैं छुप जाता हूँ | इसीलिए तुम लोग मेरे प्रेम में दोष न निकालो | तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ | तुमने मेरे लिए घर गृहस्ती की उन बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते| मुझसे तुम्हारा ये मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है| यदि मैं अमर शरीर से-अमर जीवन से अंनत काल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चूका सकता | मैं जनम जन्मों तक तुम्हारा ऋणी हूँ | तुम आपने सौम्य स्वभाव से, प्रेम से मुझे उऋण (ऋण मुक्त) कर सकती हो परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही रहूँगा ||

गायत्री के पाँच मुखों का रहस्य


गायत्री के पाँच मुखों का रहस्य


शिवजी ने गायत्री के पाँच मुखों का रहस्य बताते हुए कहा हे पार्वती! यह संपूर्ण ब्रह्मान्ड जल, वायु, पृथ्वी, तेज और आकाश के पांच तत्वों से बना है | इस पृथ्वी पर प्रत्येक जीव के भीतर गायत्री प्राण-शक्ति के रूप में विद्यमान है | ये पांच तत्व ही गायत्री के पांच मुख हैं | मनुष्य के शरीर में इन्हें पांच कोश कहा गया है | ये पांच कोश अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनंदमय कोश के नाम से जाने जाते हैं | ये पांच अनंत ऋद्धि सिद्धियों के अक्षय भंडार हैं | इन्हें पाकर जीव धन्य हो जाता है | 

पार्वती ने पूछा :- हे प्रभु ! इन्हें जाना कैसे जाता है? इनकी पहचान क्या है? 

शिवजी बोले :-  हे पार्वती ! योग साधना से इन्हें जाना जा सकता है, पहचाना जा सकता है | इन्हें सिद्ध करके जीव भव सागर के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है | जीवन मरण के चक्र से छूट जाता है | जीव के पांच तत्वों की श्रीवृद्धी और पुष्टि इस प्रकार से होती है - 'शरीर' की अन्न से, 'प्राण' की तेज से, 'मन' की नियंत्रण से, 'ज्ञान' की विज्ञान से और 'आनंद' की कला से | गायत्री के पांच मुख इन्हीं पांच तत्वों के प्रतीक हैं |