श्रीकृष्ण ने क्यों माना है ध्यान को जरुरी?


श्रीकृष्ण ने क्यों माना है ध्यान  को जरुरी?

भागवत में भगवान कृष्ण ने ध्यान यानी मेडिटेशन पर अपने गहरे विचार व्यक्त किए हैं। वैसे  इन दिनों ध्यान फैशन का विषय हो गया है। वैष्णव लोगों ने कर्मकाण्ड पर खूब ध्यान दिया है लेकिन वे ध्यान को केवल योगियों का विषय मानते रहे। लेकिन भागवत में भगवान ने भक्तों के लिए ध्यान को भी महत्वपूर्ण बताया है।उद्धवजी ने प्रभु से पूछा- हे भगवन! आप यह बतलाइए कि आपका किस रूप से, किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करें हम लोग।

भगवान कृष्ण बोले- भाई उद्धव! पहले आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाएं। हाथों को अपनी गोद में रख लें और दृष्टि अपनी नासिका के अग्र भाग पर जमावे। इसके बाद पूरक, कुंभक और रेचक तथा रेचक, कुंभक और पूरक- इन प्राणायामों के द्वारा नाडिय़ों का शोधन करे। प्रणायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए और उसके साथ-साथ इन्द्रियों को जीतने का भी अभ्यास करना चाहिए। 

हृदय में कमल नालगत पतले सूत के समान ऊँकार का चिंतन करे, प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जाए। प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ऊँकार सहित प्राणायाम का अभ्यास करे। ऐसा करने से एक महीने के अंदर ही प्राणवायु वश में हो जाता है। मेरा ऐसा स्वरूप ध्यान के लिए बड़ा ही मंगलमय है। मेरे अवयवों की गठन बड़ी ही सुडोल है। रोम-रोम से शांति टपकती है। मुखकमल अत्यंत प्रफुल्लित और सुंदर है। घुटनों तक लम्बी मनोहर चार भुजाएं हैं। बड़ी ही सुंदर और मनोहर गर्दन है।  मुख पर मंद-मंद मुसकान की अनोखी ही छटा है। दोनों ओर के कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं।

वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर तीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजी का चिन्ह वक्ष:स्थल पर दायें-बायें विराजमान है। हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा एवं पद््म धारण किए हुए हैं। गले में कौस्तुभ मणि, अपने-अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद हैं। मेरा एक-एक अंग अत्यंत सुंदर एवं हृदयहारी है। मेरे इस रूप का ध्यान करना चाहिए और अपने मन को एक-एक अंग में लगाना चाहिए।इस चैतन्य अवस्था में साधक को शरीर और आत्मा के बीच भेदात्मक दृष्टि बनाए रखने में सहायता मिलती है।